आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मानस और भागवत में पक्षी मानस और भागवत में पक्षीश्रीरामकिंकर जी महाराज
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मानस और भागवत में पक्षी का महत्व
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
संयोजकीय
रामकथा शिरोमणि सद्गुरुदेव परमपूज्य श्री रामकिंकर जी महाराज की वाणी और
लेखनी दोनों में यह निर्णय कर पाना कठिन है कि अधिक हृदयस्पर्शी या
तात्त्विक कौन है। वे विष्यवस्तु का समय, समाज एवं व्यक्ति की पात्रता को
आँकते हुए ऐसा विलक्षण प्रतिपादन करते हैं कि ज्ञानी, भक्त या कर्मपरायण
सभी प्रकार के जिज्ञासुओं को उनकी मान्यता के अनुसार श्रेय और प्रेय दोनों
की प्राप्ति हो जाती है।
हमारे यहाँ विस्तार और संक्षेप, व्यास और समास दोनों ही विधाओं के समयानुकूल उपयोग की परम्परा रही है। घटाकाश और मटाकाश दोनों ही चिंतन और प्रतिपादन के केन्द्र रहे हैं। प्रवचनों के प्रस्तुत छोटे अंक घटाकाश के रूप में हैं, उनमें सब कुछ है पर संक्षेप में है। पाठकों की कई बार ऐसी राय बनी कि थोड़ा साहित्य छोटे रूप में भी हो ताकि प्रारम्भिक रूप में या फिर यात्रा आदि में लोग किसी एक विषय का अध्ययन करने के लिए उसे साथ लेकर चल सकें। इस मनोधारणा से यह कार्य श्रेयस्कर है।
रायपुर (छत्तीसगढ़) के श्री अनिल गुप्ता एवं समस्त परिवार का आर्थिक सहयोग इसमें सन्निहित है। उन्हें महाराजश्री का आशीर्वाद !
हमारे यहाँ विस्तार और संक्षेप, व्यास और समास दोनों ही विधाओं के समयानुकूल उपयोग की परम्परा रही है। घटाकाश और मटाकाश दोनों ही चिंतन और प्रतिपादन के केन्द्र रहे हैं। प्रवचनों के प्रस्तुत छोटे अंक घटाकाश के रूप में हैं, उनमें सब कुछ है पर संक्षेप में है। पाठकों की कई बार ऐसी राय बनी कि थोड़ा साहित्य छोटे रूप में भी हो ताकि प्रारम्भिक रूप में या फिर यात्रा आदि में लोग किसी एक विषय का अध्ययन करने के लिए उसे साथ लेकर चल सकें। इस मनोधारणा से यह कार्य श्रेयस्कर है।
रायपुर (छत्तीसगढ़) के श्री अनिल गुप्ता एवं समस्त परिवार का आर्थिक सहयोग इसमें सन्निहित है। उन्हें महाराजश्री का आशीर्वाद !
मैथिलीशरण
कृतज्ञता ज्ञापन
श्रीसद्गुरवै नमः
हमारे परिवार के आध्यात्मिक-प्रेरणास्रोत पूज्य पिताश्री नारायण प्रसाद
गुप्ताजी (आरंग वाले) दिनांक 13-11-96 को अपने दिव्यधाम के लिए प्रस्थान
कर गये। उन्हीं के धार्मिक विचारों से प्रेरित परिवार को इस कार्य द्वारा
माता सरस्वती के मन्दिर में एक दिव्य सुमनांजलि समर्पित करने का
पुण्य अवसर मिला। इस सबके पीछे सद्गुरु महाराजजी की कृपा एवं ईश्वरेच्छा
ही मूल कारण है। उस परम शक्तिमान के प्रति हम सदैव श्रद्धानत हैं।
यहाँ पर भाई श्री मैथिलीशरणजी एवं परम विदुषी दीदी मंदाकिनीजी जो श्री सद्गुरुदेव के अत्यन्त प्रेमी एवं निकट हैं तथा उन सभी श्रद्धालुओं के प्रति हार्दिक धन्यवाद देना हमारा परम कर्त्तव्य है जिनका इस पुस्तक-माला में, श्रीगुरुदेव के प्रवचनों के संयोजन में, विशेष सहयोग रहा है। वे इसलिए भी धन्यवाद के पात्र हैं क्योंकि उन्हीं के सहयोग और श्रद्धाभावना से श्री सद्गुरुदेव महाराजजी के ज्ञान, आनन्द, श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, दया, मैत्री, सरलता, साधुता, समता, सत्य, क्षमा आदि दैवी गुणों के विपुल भण्डार से समय-समय पर ग्रन्थ के रूप में ज्ञान-राशि प्राप्त होती रहती है।
श्रीराम में हमारी अखण्ड भक्ति बनी रहे,
श्रीसद्गुरुदेव की कृपा सब पर वर्षित हो।
यहाँ पर भाई श्री मैथिलीशरणजी एवं परम विदुषी दीदी मंदाकिनीजी जो श्री सद्गुरुदेव के अत्यन्त प्रेमी एवं निकट हैं तथा उन सभी श्रद्धालुओं के प्रति हार्दिक धन्यवाद देना हमारा परम कर्त्तव्य है जिनका इस पुस्तक-माला में, श्रीगुरुदेव के प्रवचनों के संयोजन में, विशेष सहयोग रहा है। वे इसलिए भी धन्यवाद के पात्र हैं क्योंकि उन्हीं के सहयोग और श्रद्धाभावना से श्री सद्गुरुदेव महाराजजी के ज्ञान, आनन्द, श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, दया, मैत्री, सरलता, साधुता, समता, सत्य, क्षमा आदि दैवी गुणों के विपुल भण्डार से समय-समय पर ग्रन्थ के रूप में ज्ञान-राशि प्राप्त होती रहती है।
श्रीराम में हमारी अखण्ड भक्ति बनी रहे,
श्रीसद्गुरुदेव की कृपा सब पर वर्षित हो।
मानस और भागवत में पक्षी
‘श्रीरामचरितमानस’ विलक्षण एवं महत्त्वपूर्ण सांकेतिक
भाषा
में प्रस्तुत किया गया है। यही बात ‘श्रीमद्भागवत’ के
सन्दर्भ
में भी है, ‘श्रीमद्भागवत’ के वक्ता परमहंस शुकदेव
हैं। यहाँ
पर दो शब्द जुड़े हुए हैं, एक ओर तो उन्हें शुक के रूप में प्रस्तुत किया
गया और शुक एक पक्षी है पर उनके शुकत्व के साथ-साथ हंश शब्द भी जुड़ा हुआ
है तथा उसका तात्पर्य यह है कि ‘श्रीमद्भागवत’ के जो
श्रेष्ठतम वक्ता हैं, चाहे आप उन्हें हंस के रूप में देखें और चाहे शुक के
रूप में देखें वे हमारे वंदनीय हैं। जब आप
‘श्रीमद्भागवत’ के
साथ –साथ ‘श्रीरामचरितमानस’ पर ध्यान देंगे
तो इसके
वक्ता भी एक पक्षी हैं और श्रोता के रूप में भी दूसरे पक्षी का उल्लेख
किया गया है। वक्ता श्रीकाकभुशुण्डिजी है और श्रोता श्रीगरुणजी हैं और इस
तरह से ये दोनों विलक्षण हैं। इनमें जिन पक्षियों के नाम का सांकेतिक
उल्लेख किया गया है और जिस रूप में उनकी ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया गया
है, बहुधा उसके अन्तरंग अर्थ की ओर लोगों की दृष्टि नहीं जाती है, पर
‘श्रीरामचरितमानस’ में उसे और भी स्पष्ट किया गया है।
पक्षी शब्द के ‘रामायण’ में दो अर्थ किये गये हैं, उसके एक अर्थ से तो सभी परिचित हैं कि जो आकाश में उड़ने वाला है और जिसके पास दो पक्ष होते हैं, वह पक्षी है, पर ‘रामायण’ में साथ-साथ यह कहा गया कि पक्षी का तात्पर्य है कि जिसके अन्तःकरण में कोई पक्षपात हो। यो कह सकते हैं कि इन महापुरुषों का वर्णन पक्षी के रूप में किया गया है और जब पक्षी का अर्थ पक्षपाती किया गया तो इसमें एक मधुर संकेत है और वह यह है कि पक्षपात की व्यवहार में बड़ी निन्दा की जाती है, बड़ी आलोचना की जाती है तथा निष्पक्षता की बड़ी प्रशंसा की जाती है, लेकिन वस्तुतः मनुष्य के अन्तःकरण का जो स्वाभाविक निर्माण हुआ है, उसमें निष्पक्षता किसी भी प्रकार से सम्भव नहीं है। यों कह सकते हैं कि अन्त में व्यक्ति के सारे व्यवहारों मे किसी न किसी प्रकार का पक्षपात तो दिखाई ही देता है, चाहे वह सिद्धान्त का पक्षपात हो, चाहे वह भाषा का पक्षपात हो, चाहे विचार का पक्षपात हो। किसी न किसी प्रकार का पक्षपात प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में है, भले ही वह कितनी भी निष्पक्ष क्यों न बनना चाहे।
संसार में जब किसी व्यक्ति को निष्पक्ष कहते हैं तो उसकी तुलना हंस से की जाती है, क्योंकि दूध और पानी को मिलाकर यदि उसके सामने रख दिया जाय तो दोनों को अलग-अलग करने की क्षमता उसमें है। किसी की निष्पक्षता की प्रशंसा यह कहकर करते हैं कि इसमें तो नीर-क्षीर विवेक की हंसवृत्ति विद्यामान है, पर आप विचार करके देखिए कि यद्यपि हंस दूध और पानी को अलग कर देता है फिर भी उसके साथ पक्षी शब्द क्यों जुड़ा हुआ है ? कहते तो उसको पक्षी ही हैं, भले ही वह दूध और पानी को अलग कर देता हो ! बल्कि सच्चाई यह है कि वह दूध और पानी को अलग भले ही कर दे, पर पक्षपात से रहित वह भी नहीं है। क्योंकि दूध और पानी को अलग करके जब वह दूध पी लेता है और पानी को छोड़ देता है तो दूध के प्रति उसका पक्षपात तो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई ही देता है। इसका अभिप्राय है कि जो बड़ा निष्पक्ष दिखायी देता है, वह भी वस्तुतः पक्षी ही है। ‘श्रीरामचरितमानस’ में ये तीन शब्द कहे गये हैं-
पक्षी शब्द के ‘रामायण’ में दो अर्थ किये गये हैं, उसके एक अर्थ से तो सभी परिचित हैं कि जो आकाश में उड़ने वाला है और जिसके पास दो पक्ष होते हैं, वह पक्षी है, पर ‘रामायण’ में साथ-साथ यह कहा गया कि पक्षी का तात्पर्य है कि जिसके अन्तःकरण में कोई पक्षपात हो। यो कह सकते हैं कि इन महापुरुषों का वर्णन पक्षी के रूप में किया गया है और जब पक्षी का अर्थ पक्षपाती किया गया तो इसमें एक मधुर संकेत है और वह यह है कि पक्षपात की व्यवहार में बड़ी निन्दा की जाती है, बड़ी आलोचना की जाती है तथा निष्पक्षता की बड़ी प्रशंसा की जाती है, लेकिन वस्तुतः मनुष्य के अन्तःकरण का जो स्वाभाविक निर्माण हुआ है, उसमें निष्पक्षता किसी भी प्रकार से सम्भव नहीं है। यों कह सकते हैं कि अन्त में व्यक्ति के सारे व्यवहारों मे किसी न किसी प्रकार का पक्षपात तो दिखाई ही देता है, चाहे वह सिद्धान्त का पक्षपात हो, चाहे वह भाषा का पक्षपात हो, चाहे विचार का पक्षपात हो। किसी न किसी प्रकार का पक्षपात प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में है, भले ही वह कितनी भी निष्पक्ष क्यों न बनना चाहे।
संसार में जब किसी व्यक्ति को निष्पक्ष कहते हैं तो उसकी तुलना हंस से की जाती है, क्योंकि दूध और पानी को मिलाकर यदि उसके सामने रख दिया जाय तो दोनों को अलग-अलग करने की क्षमता उसमें है। किसी की निष्पक्षता की प्रशंसा यह कहकर करते हैं कि इसमें तो नीर-क्षीर विवेक की हंसवृत्ति विद्यामान है, पर आप विचार करके देखिए कि यद्यपि हंस दूध और पानी को अलग कर देता है फिर भी उसके साथ पक्षी शब्द क्यों जुड़ा हुआ है ? कहते तो उसको पक्षी ही हैं, भले ही वह दूध और पानी को अलग कर देता हो ! बल्कि सच्चाई यह है कि वह दूध और पानी को अलग भले ही कर दे, पर पक्षपात से रहित वह भी नहीं है। क्योंकि दूध और पानी को अलग करके जब वह दूध पी लेता है और पानी को छोड़ देता है तो दूध के प्रति उसका पक्षपात तो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई ही देता है। इसका अभिप्राय है कि जो बड़ा निष्पक्ष दिखायी देता है, वह भी वस्तुतः पक्षी ही है। ‘श्रीरामचरितमानस’ में ये तीन शब्द कहे गये हैं-
ग्यान बिराग बिचार मराला।1/36/7
जिनमें ज्ञान है, जिनमें वैराग्य है और जिनमें विचार है, वे वस्तुतः हंस
हैं, पर वहां पर भी अगर विचार करके देखें कि परमहंस, तत्त्वज्ञ या विचारक
जो होगा और जब वह नित्यानित्य का विवेक दूध-पानी को अलग करने के समान
करेगा, तो अन्त में वह भी नित्य को ग्रहण करेगा और अनित्य का परित्याग
करेगा। इसका अभिप्राय यह है कि पक्षपात होना बुरा नहीं है। वस्तुतः
पक्षपात तो व्यक्ति के व्यक्तित्व में स्वाभाविक रूप से विद्यमान है,
लेकिन उस पक्षपात का परिणाम क्या होता है ? उस परिणाम को दृष्टि में रख
करके ही पक्षी की प्रशंसा अथवा निन्दा की जाती है।
पक्षियों की जो निन्दा की जाती है, उसका एक कारण और है। अलग-अलग विचार वाले और अलग-अलग मत वाले व्यक्ति जब मिलते हैं तो सब पक्षी ही हैं और पक्षियों में विवाद प्रारम्भ हो जाता है, झगड़ा प्रारम्भ हो जाता है, लेकिन ‘रामायण’ का संकेत सूत्र यह है कि यहाँ पर पक्षियों का विवाद नहीं है, बल्कि पक्षियों का संवाद है। श्रीकाकभुशुण्डिजी भी पक्षी हैं और श्रीगरुणजी भी पक्षी हैं, लेकिन जब दोनों मिलते हैं तो उनमें एक दिव्य संवाद होता है और संवाद किस रूप में होता है ? संवाद होता है भगवान् के चरित्र के वर्णन के रूप में। इसका क्या अभिप्राय है ? यदि अपने पक्ष के आग्रह में शुद्ध तर्क-वितर्क ही करें तो विवाद मिटने वाला नहीं है। जितने सिद्धान्त हैं, जितनी मान्यताएँ हैं, उनमें कुछ न कुछ भिन्नताएँ रहेंगी और परस्पर एक-दूसरे के विरुद्ध टकराहट भी रहेगी, लेकिन यदि इस विवाद को समाप्त करना चाहें तो इसका सबसे सुन्दर उपाय यह है कि भगवान् की कथा कही जाय और भगवान् की कथा सुनी जाय।
पक्षियों के संवाद का अभिप्राय यह है कि मानो भगवत्कथा ही एक ऐसी वस्तु है जिससे विवाद मिट सकता है। भागवत्कथा में एक सांकेतिक सूत्र आता है और वह बड़े महत्त्व का है कि भगवान् की कथा में किस पक्षी का महत्त्व अधिक है, हंस का या कौए का ? हंस से प्रारम्भ किया गया। श्रीशुकदेवजी महाराज हंस हैं और श्रीकाकभुशुण्डिजी महाराज कौआ हैं। हंस जो है, वह पक्षियों में श्रेष्ठ है, अत्यन्त वन्दनीय है और कौआ पक्षियों में अत्यन्त निन्दनीय माना जाता है। प्रसंग आता है कि भुशुण्डि शर्मा के अन्तःकरण में भक्ति के संस्कार थे और जन्मजात ही उनके अन्तःकरण में सगुण साकार भक्ति के प्रति पक्षपात था। जब वे अपनी जिज्ञासा लेकर महापुरुषों के पास जाते थे और उनसे प्रश्न करते थे वे वेदान्तपरायण महापुरुष उनको वेदान्त का ज्ञान देने की चेष्टा करते थे, लेकिन भुशुण्डि शर्मा की समस्या यह थी कि-
पक्षियों की जो निन्दा की जाती है, उसका एक कारण और है। अलग-अलग विचार वाले और अलग-अलग मत वाले व्यक्ति जब मिलते हैं तो सब पक्षी ही हैं और पक्षियों में विवाद प्रारम्भ हो जाता है, झगड़ा प्रारम्भ हो जाता है, लेकिन ‘रामायण’ का संकेत सूत्र यह है कि यहाँ पर पक्षियों का विवाद नहीं है, बल्कि पक्षियों का संवाद है। श्रीकाकभुशुण्डिजी भी पक्षी हैं और श्रीगरुणजी भी पक्षी हैं, लेकिन जब दोनों मिलते हैं तो उनमें एक दिव्य संवाद होता है और संवाद किस रूप में होता है ? संवाद होता है भगवान् के चरित्र के वर्णन के रूप में। इसका क्या अभिप्राय है ? यदि अपने पक्ष के आग्रह में शुद्ध तर्क-वितर्क ही करें तो विवाद मिटने वाला नहीं है। जितने सिद्धान्त हैं, जितनी मान्यताएँ हैं, उनमें कुछ न कुछ भिन्नताएँ रहेंगी और परस्पर एक-दूसरे के विरुद्ध टकराहट भी रहेगी, लेकिन यदि इस विवाद को समाप्त करना चाहें तो इसका सबसे सुन्दर उपाय यह है कि भगवान् की कथा कही जाय और भगवान् की कथा सुनी जाय।
पक्षियों के संवाद का अभिप्राय यह है कि मानो भगवत्कथा ही एक ऐसी वस्तु है जिससे विवाद मिट सकता है। भागवत्कथा में एक सांकेतिक सूत्र आता है और वह बड़े महत्त्व का है कि भगवान् की कथा में किस पक्षी का महत्त्व अधिक है, हंस का या कौए का ? हंस से प्रारम्भ किया गया। श्रीशुकदेवजी महाराज हंस हैं और श्रीकाकभुशुण्डिजी महाराज कौआ हैं। हंस जो है, वह पक्षियों में श्रेष्ठ है, अत्यन्त वन्दनीय है और कौआ पक्षियों में अत्यन्त निन्दनीय माना जाता है। प्रसंग आता है कि भुशुण्डि शर्मा के अन्तःकरण में भक्ति के संस्कार थे और जन्मजात ही उनके अन्तःकरण में सगुण साकार भक्ति के प्रति पक्षपात था। जब वे अपनी जिज्ञासा लेकर महापुरुषों के पास जाते थे और उनसे प्रश्न करते थे वे वेदान्तपरायण महापुरुष उनको वेदान्त का ज्ञान देने की चेष्टा करते थे, लेकिन भुशुण्डि शर्मा की समस्या यह थी कि-
निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा।7/110/7
निर्गुण निराकार ब्रह्म का सिद्धान्त मैं अपने हृदय में धारण नहीं कर पा
रहा था। वे माँग लेकर कुछ दूसरी ही जाते थे और महापुरुष उनको देते वह थे
कि जिसे वे महापुरुष अच्छा समझते थे। परिणाम यह हुआ कि विवाद हो गया। उन
महात्माओं में भी जो श्रेष्ठ महात्मा थे महर्षि लोमश, उनके चरणों में जाकर
भुशुण्डि शर्मा ने प्रणाम किया और उनको लगा कि शायद मेरे अन्तःकरण की
प्यास यहाँ बुझेगी, तृप्ति मिलेगी। इसलिए जब लोमेशजी ने पूछा कि तुम क्या
सुनना चाहते हो ? तो उन्होंने यही कहा कि-
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान।7/110घ
आप कृपा करके मुझे सगुण साकार ब्रह्म की आराधना बताइए। उनकी माँग तो
बिलकुल स्पष्ट थी, सगुण साकार की उपासना और उन्होंने इसका उपदेश तो किया
लेकिन फिर अपना जो पक्षपात होता है, अपनी जो मान्यता होता है, उसके प्रति
आग्रह तो होता ही है। लोमेशजी के हृदय में भी ज्ञान के प्रति इसी प्रकार
का आग्रह विद्यमान था और उन्होंने यह सोचा कि यह तो बड़ा ही योग्य अधिकारी
है, क्यों न मैं इसको तत्त्वज्ञान का उपदेश देकर निर्गुण-निराकार ब्रह्म
में स्थित करूँ ! उसको भक्ति की भेदबुद्धि के स्थान पर ज्ञान की जो अभेद
बुद्धि है, इसे मैं दे दूँ। तब अन्त में उपदेश करते हुए उन्होंने कहा कि
जिस ब्रह्म या ईश्वर का तुम दर्शन करना चाहते हो, क्या वह तुमसे भिन्न है
?-
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा।
बारि बीचि इव गावहिं बेदा।।7/110/6
बारि बीचि इव गावहिं बेदा।।7/110/6
वस्तुतः तुममें और मुझमें रंचमात्र भी कोई भेद नहीं है जैसे जल और तरंग
में। सिद्धान्त चाहे कितना भी ऊँचा क्यों न हो ? लेकिन यदि क्रमिक रूप से
व्यक्ति के सामने न रखा जाय और सीधे उसको अन्तिम बात कह दी जाय तो उसका
क्या परिणाम होगा ? इसको यों कहें कि प्रत्येक कक्षा के, प्रत्येक
विद्यार्थियों का एक स्तर होता है। जैसे ‘क’ अक्षर
है, इस
‘क’ का अर्थ क्या है ? पहली कक्षा में कबूतर का चित्र
दिखाकर
पढ़ाया जाता है कि ‘क’ का माने कबूतर। संस्कृत
शब्दकोश में
‘क’ माने जल भी है, लेकिन प्रारम्भ में
‘क’ माने
जल नहीं, ‘क’ माने कबूतर ही बताया जाता है, पर जब
साहित्य की
कक्षा में विद्यार्थी जाता है, आगे बढ़ता है तो बताया जाता है कि
‘क’ माने कबूतर नहीं है, ‘क’
माने जल होता है।
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